भगवद्गीता एक महान आध्यात्मिक ग्रंथ है, जो महाभारत के युद्ध के दौरान भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुए संवाद के रूप में वर्णित है। इस ग्रंथ में जीवन के सभी पहलुओं पर मार्गदर्शन दिया गया है।
यहां कुछ भगवद्गीता के श्लोक दिए गए हैं:
अध्याय 13, श्लोक 2:
अविनाशिं सर्वभूतेषु व्याप्तं चेतनं द्रष्टव्यम्। नित्यं चैव मुक्तं चैव यः वेद स धीरोत्तमः॥
अर्थ:
सर्वभूतों में व्याप्त, अविनाशी, चेतन परमात्मा को देखना चाहिए। जो इसे नित्य और मुक्त जानता है, वह श्रेष्ठ बुद्धि वाला है।
यह श्लोक ब्रह्मज्ञान का मूल सिद्धांत बताता है। इस श्लोक के अनुसार, हमें सर्वव्यापी, अविनाशी, चेतन परमात्मा को जानना चाहिए। ब्रह्मज्ञान से हम सभी दुखों से मुक्त हो सकते हैं।
अध्याय 13, श्लोक 12:
एष सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन निहितः। ज्ञानं कर्म च सर्वस्य एष एवाधिष्ठानम्॥
अर्थ:
हे अर्जुन, यह सर्वभूतों के हृदय में स्थित है। यह ज्ञान और कर्म का एकमात्र आधार है।
यह श्लोक परमात्मा की सर्वव्यापकता को बताता है। इस श्लोक के अनुसार, परमात्मा ही ज्ञान और कर्म का मूल कारण है।
अध्याय 17, श्लोक 23:
मयि सर्वाणि भूतानि विनश्यन्ती पुनरावर्तन्ते। मत्त एव भवन्त्यभीतिं मा कुरु सर्वथा॥
अर्थ:
सभी प्राणी मुझ में विलीन हो जाते हैं और फिर मुझसे उत्पन्न होते हैं। तुम मुझसे ही उत्पन्न होते हो, इसलिए किसी भी प्रकार का भय मत करो।
यह श्लोक पुनर्जन्म के सिद्धांत को बताता है। इस श्लोक के अनुसार, सभी प्राणी बार-बार जन्म लेते हैं और मरते हैं। लेकिन, आत्मा कभी भी नहीं मरती है।
अध्याय 18, श्लोक 65:
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
अर्थ:
हे भारत, जब-जब धर्म का पतन होता है और अधर्म का उदय होता है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूं। साधुओं की रक्षा के लिए, दुष्टों के विनाश के लिए, और धर्म की स्थापना के लिए, मैं युग-युग में प्रकट होता हूं।
यह श्लोक भगवान के अवतार के सिद्धांत को बताता है। इस श्लोक के अनुसार, भगवान जब-जब धर्म का पतन होता है, तब-तब स्वयं को प्रकट करते हैं और धर्म की स्थापना करते हैं।
ये केवल कुछ और भगवद्गीता के श्लोक हैं। भगवद्गीता एक ऐसा ग्रंथ है, जो जीवन के हर पहलुओं पर मार्गदर्शन देता है।
गीता के श्लोक
अध्याय 2, श्लोक 47:
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
अर्थ:
कर्म करने का अधिकार तेरा है, फल के लिए नहीं। कर्मफल का हेतु मत बन, और अकर्मण्यता में भी आसक्ति मत रख।
यह श्लोक कर्मयोग का मूल सिद्धांत बताता है। इस श्लोक के अनुसार, हमें कर्म करते हुए फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए। कर्मफल की इच्छा से कर्म करने से मोह और आसक्ति पैदा होती है।
अध्याय 18, श्लोक 66:
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥
अर्थ:
सभी धर्मों को त्यागकर, मुझ एक को ही शरण जाओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा, चिंता मत करो।
यह श्लोक भक्तियोग का मूल सिद्धांत बताता है। इस श्लोक के अनुसार, हमें सभी सांसारिक कर्मों और धर्मों को त्यागकर, केवल भगवान की शरण में जाना चाहिए। भगवान की शरण में जाने से हम सभी पापों से मुक्त हो सकते हैं।
अध्याय 2, श्लोक 37:
हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्। तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥
अर्थ:
यदि तुम युद्ध में मारे जाते हो, तो तुम्हें स्वर्ग प्राप्त होगा, और यदि तुम विजयी होते हो, तो तुम्हें पृथ्वी का सुख प्राप्त होगा। इसलिए, हे अर्जुन, उठो और निश्चय करके युद्ध करो।
यह श्लोक कर्तव्यपरायणता का महत्व बताता है। इस श्लोक के अनुसार, हमें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, चाहे परिणाम कुछ भी हो।
अध्याय 2, श्लोक 64:
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति। शुभाशुभपरित्यागी भयभ्रष्टो धनञ्जयः॥
अर्थ:
जो न हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न इच्छा करता है, जो शुभाशुभ का त्यागी है, और भय से रहित है, वह धनञ्जय (अर्जुन) है।
यह श्लोक समता का महत्व बताता है। इस श्लोक के अनुसार, हमें सभी परिस्थितियों में समभाव रखना चाहिए।
अध्याय 18, श्लोक 62:
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
अर्थ:
विषयों के बारे में सोचने से मनुष्य में उनसे आसक्ति उत्पन्न होती है। आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है, और काम से क्रोध उत्पन्न होता है।
यह श्लोक आसक्ति के विनाशकारी प्रभावों को बताता है। इस श्लोक के अनुसार, हमें विषयों से आसक्ति से बचना चाहिए।
ये केवल कुछ भगवद्गीता के श्लोक हैं। भगवद्गीता एक ऐसा ग्रंथ है, जिसे बार-बार पढ़ने से हमें जीवन के हर पहलुओं पर मार्गदर्शन मिलता है।