गुरु पर संस्कृत श्लोक हिंदी में part2

गुरु श्लोक Top sanskrit shlok on guru in hindi
गुरु श्लोक Top sanskrit shlok on guru in hindi

गुरु श्लोक Top sanskrit shlok on guru in hindi:

  • नीचः श्लाद्यपदं प्राप्य स्वामिनं हन्तुमिच्छति ।
  • मूषको व्याघ्रतां प्राप्य मुनिं हन्तुं गतो यथा ॥
  • उच्च स्थान प्राप्त करते ही, अपने स्वामी को मारने की इच्छा करना नीचता (का लक्षण) है; वैसे हि जैसे कि चूहा शेर बनने पर मुनि को मारने चला था !
  • कश्यपोऽत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रस्तु गौतमः ।
  • जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषयः स्मृताः ॥
  • कश्यप, अत्रि, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि, और वशिष्ठ – ये सप्त ऋषि हैं ।
  • नमोस्तु ऋषिवृंदेभ्यो देवर्षिभ्यो नमो नमः ।
  • सर्वपापहरेभ्यो हि वेदविद्भ्यो नमो नमः ॥
  • ऋषि समुदाय, जो देवर्षि हैं, सर्व पाप हरनेवाले हैं, और वेद को जाननेवाले हैं, उन्हें मैं बार नमस्कार करता हूँ ।
  • ब्रह्मानंदं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्ति
  • द्वंद्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम् ।
  • एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभुतं
  • भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ॥
  • ब्रह्मा के आनंदरुप परम् सुखरुप, ज्ञानमूर्ति, द्वंद्व से परे, आकाश जैसे निर्लेप, और सूक्ष्म “तत्त्वमसि” इस ईशतत्त्व की अनुभूति हि जिसका लक्ष्य है; अद्वितीय, नित्य विमल, अचल, भावातीत, और त्रिगुणरहित – ऐसे सद्गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ ।
  • बहवो गुरवो लोके शिष्य वित्तपहारकाः ।
  • क्वचितु तत्र दृश्यन्ते शिष्यचित्तापहारकाः ॥
  • जगत में अनेक गुरु शिष्य का वित्त हरण करनेवाले होते हैं; परंतु, शिष्य का चित्त हरण करनेवाले गुरु शायद हि दिखाई देते हैं ।
गुरु श्लोक Top sanskrit shlok on guru in hindi best slokas ever
  • दृष्टान्तो नैव दृष्टस्त्रिभुवनजठरे सद्गुरोर्ज्ञानदातुः
  • स्पर्शश्चेत्तत्र कलप्यः स नयति यदहो स्वहृतामश्मसारम् ।
  • न स्पर्शत्वं तथापि श्रितचरगुणयुगे सद्गुरुः स्वीयशिष्ये
  • स्वीयं साम्यं विधते भवति निरुपमस्तेवालौकिकोऽपि ॥
  • तीनों लोक, स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल में ज्ञान देनेवाले गुरु के लिए कोई उपमा नहीं दिखाई देती । गुरु को पारसमणि के जैसा मानते है, तो वह ठीक नहीं है, कारण पारसमणि केवल लोहे को सोना बनाता है, पर स्वयं जैसा नहि बनाता ! सद्बुरु तो अपने चरणों का आश्रय लेनेवाले शिष्य को अपने जैसा बना देता है; इस लिए गुरुदेव के लिए कोई उपमा नहि है, गुरु तो अलौकिक है ।
  • गुरोर्यत्र परीवादो निंदा वापिप्रवर्तते ।
  • कर्णौ तत्र विधातव्यो गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः ॥
  • जहाँ गुरु की निंदा होती है वहाँ उसका विरोध करना चाहिए । यदि यह शक्य न हो तो कान बंद करके बैठना चाहिए; और (यदि) वह भी शक्य न हो तो वहाँ से उठकर दूसरे स्थान पर चले जाना चाहिए ।
  • अचिनोति च शास्त्रार्थं आचारे स्थापयत्यति ।
  • स्वयमप्याचरेदस्तु स आचार्यः इति स्मृतः ॥
  • जो स्वयं सभी शास्त्रों का अर्थ जानता है, दूसरों के द्वारा ऐसा आचार स्थापित हो इसलिए अहर्निश प्रयत्न करता है; और ऐसा आचार स्वयं अपने आचरण में लाता है, उन्हें आचार्य कहते है ।
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