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दुर्जन पर संस्कृत श्लोक हिंदी में Part4

दुर्जन पर संस्कृत श्लोक हिंदी में Part4 :

  • दुर्जनो नार्जवं याति सेव्यमानोऽपि नित्यशः ।
  • स्वेदनाभ्य़ंजनोपायैः श्र्वपुच्छमिव नामितम् ॥
  • जैसे कुत्ते की पूंछ स्वेदन, अंजन इत्यादि उपाय से सरल नहीं बनती, वैसे दुष्ट मानव हंमेशा सेवा करने के बावजुद सरल नहीं बनता ।
  • सर्प क्रूरः खलः क्रूरः सर्पात् क्रूरतरः खलः ।
  • मन्त्रेण शाम्यते सर्पः न खलः शाम्यते कदा ॥
  • सर्प क्रूर है, दुष्ट भी क्रूर है । लेकिन सर्प से दुष्ट ज्यादा क्रूर है । सर्प तो मंत्रसे वश होता है, पर दुष्ट मानव कभी वश नहीं होता ।
  • खलः सर्षपमात्राणि परछिद्राणि पश्यति ।
  • आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन् अपि न पश्यति ॥
  • दुष्ट मानव दूसरे का राई जितना दोष भी देखते हैं, लेकिन खुद के बिल्वफ़ल जितने दोष दिखनेके बावजूद उसे ध्यान पर नहीं लेते ।
  • त्यकत्वा मौक्तिकसंहतिकरटिनो गृहणन्ति काकाः पलम्
  • त्यक्त्वा चन्दनमाश्रयन्ति कुथितं योनिक्षतं मक्षिकाः ।
  • हित्वान्नं विविधं मनोहररसं श्र्वानो मलं भुज्ज्ते
  • यद्वद् यांति गुणं विहाय सततं दोषं तथा दुर्जनाः ॥
  • जैसे कौए मोतीयों के समूह को छोडकर विष्टा लेते हैं, मख्खीयाँ चंदन छोडकर दुर्गंधयुक्त योनिक्षत का सहारा लेती है, भिन्न प्रकार के मनोहर रसवाला अन्न छोडकर कुत्ता मल खाता है, वैसे दुर्जन अच्छे गुण छोडकर दोष का सहारा लेते हैं ।
दुर्जन पर संस्कृत श्लोक हिंदी में Part4:
  • पापं वर्धयते चिनोति कुमतिं कीर्त्यंगना नश्यति
  • धर्मं ध्वंसयते तनोति विपदं सम्पत्तिमुन्मर्दति ।
  • नीतिं हन्ति विनीतिमत्र कुरुते कोपं धुनीते शमम्
  • किं वा दुर्जन संगतिं न कुरुते लोकद्वयध्वंसिनी ॥
  • पाप को बढाती है, कुमति का संचार करती है, कीर्तिरुप अंगना का नाश करती है, धर्मका ध्वंस करती है, विपत्ति का विस्तार करती है, संपत्तिका मर्दन करती है, नीति को हरती है, विनीति को कोप कराती है, शांति को हिलाती है; दोनों लोक का नाश करनेवाली दुर्जन-संगति क्या नहीं करती ?
  • दुर्जस्नं सज्जनं कर्तुमुपायो न हि भूतले ।
  • अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत् ॥
  • यह पृथ्वी पर दुर्जन को सज्जन बनाने का कोई उपाय नहीं है । अपान को सौ बार धोने परभी उसे श्रेष्ठ इंन्द्रिय नहीं बनायी जा सकती ।
  • विपुलहदयाभियोग्ये खिध्यति काव्ये जडो न मौख्र्यै स्वे ।
  • निन्दति कज्चुकिकारं प्रायः शुष्कस्तनी नारी ॥
  • जड मानव, ह्रदय विपुल बनानेवाला काव्य पढकर खेद पाता है, लेकिन उसे अपनी मूर्खता पर खेद नहीं होता । ज़ादा करके शुष्क स्तनवाली नारी, कंचुकी बनानेवाले की निंदा करती है ।
  • न देवाय न धर्माय न बन्धुभ्यो न चार्थिने ।
  • दुर्जनेनार्जितं द्रव्यं भुज्यते राजतस्करैः ॥
  • दुर्जन को मिला हुआ धन देवकार्य में, धर्म में, सगे-संबंधीयों या याचक को देने में काम नहीं आता; उसका उपयोग तो राजा और चोर हि करते है ।
  • दुर्जन दूषितमनसां पुंसां सुजनेऽप्यविश्र्वासः ।
  • बालः पायसदग्धो दध्यपि फूल्कृत्य भक्षयति ॥
  • दुर्जन से जिसका मन दूषित होता है एसा मानव सज्जन पर भी अविश्वास करता है । दूध से जला बालक दहीं भी फ़ूँक कर पीता है
  • अनिष्टादिष्टलाभेऽपि न गतिर्जायते शुभा ।
  • यत्रास्ते विषसंसर्गोड्मृतमपि तत्र मृत्यवे ॥
  • अनिष्ट में से इष्ट लाभ होता हो तो फिर भी अच्छा फ़ल नहीं मिलता, जहाँ विषका संसर्ग हो वहाँ अमृत भी मृत्यु निपजाता है ।
  • See also: क्षान्ति तुल्यं तपो नास्ति Top Sanskrit shlok ever
  • see also : hindi.mahajogi.in

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