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गृहस्थी पर संस्कृत श्लोक हिंदी में

गृहस्थी पर संस्कृत श्लोक हिंदी में:

  • प्रीणाति य सुचरितैः पितरं स पुत्रो
  • यद्भर्तुरेव हितमिच्छति तत्कलत्रम् ।
  • तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं यत्
  • एतत् त्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते ॥
  • पिता को अपने सद्वर्तन से खुश करनेवाला पुत्र, केवल पति का हित चाहनेवाली पत्नी, और जो सुख-दुःख में समान आचरण रखता हो ऐसा मित्र – ये तीन जगत में पुण्यवान को हि प्राप्त होते हैं ।
  • ऋणकर्ता पिता शत्रुः माता च व्यभिचारिणी ।
  • भार्या रूपवती शत्रुः पुत्रः शत्रुरपण्डितः ॥
  • कर्जा करनेवाला पिता, व्यभिचारिणी माता, रुपवती स्त्री, और अनपढ पुत्र – शत्रुवत् हैं ।
  • दिग्वाससं गतव्रीडं जटिलं धूलिधूसरम् ।
  • पुण्याधिका हि पश्यन्ति गंगाधरमिवात्मजम् ॥
  • गंगा को धारण करनेवाले महादेव की भाँति दिगंबर, निर्लज्ज, जटावाले, और धूल से मैले बालक को तो कोई विशेष पुण्यशाली जीव हि देख सकता है ! अर्थात् ऐसा बच्चा किसे अच्छा लगेगा ?
  • कोऽर्थः पुत्रेण जातेन यो न विद्वान न धार्मिकः ।
  • काणेन चक्षुषा किं वा चक्षुःपीडैव केवलम् ॥
  • जो विद्वान और धार्मिक नहीं ऐसा पुत्र जनने से क्या लाभ ? एक आँख का क्या उपयोग ? वह तो केवल पीडा ही देती है !
  • पात्रं न तापयति नैव मलं प्रसूते
  • स्नेहं न संहरति नैव गुणान् क्षिणोति ।
  • द्रव्यावसानसमये चलतां न धत्ते
  • सत्पुत्र एष कुलसद्मनि कोऽपि दीपः ॥
  • कुलवान के घर में प्रकट हुआ पुत्र तो एक विलक्षण दिये जैसा है । दिया तो पात्र को तपाता है, पर पुत्र कुल को नहीं तपाता; दिया मेश बनाता है पर पुत्र मैल नहीं निकालता; दिया तेल पी जाता है पर पुत्र स्नेह का नाश नहीं करता; दिया गुण (वाट) को कम करता है पर पुत्र गुण कम नहीं करता; दिया सामग्री कम होने पर बूझ जाता है पर पुत्र द्रव्य कम होने पर कुल का त्याग नहीं करता ।
गृहस्थी पर संस्कृत श्लोक हिंदी में:
  • विद्याविहीना बहवोऽपि पुत्राः
  • कल्पायुषः सन्तु पितुः किमेतैः ।
  • क्षयिष्णुना वापि कलावता वा
  • तस्य प्रमोदः शशिनेव सिन्धोः ॥
  • चंद्र क्षयरोग से पीडित है, फिर भी कलावान होने से समंदर को आनंद होता है । वैसे हि एखाद भी गुणवान पुत्र से पिता को आनंद होता है, परंतु, विद्याविहीन अनेक दीर्घायु पुत्र होने से पिता को क्या ?

See also: वास्तविक वृद्ध कौन है?

How to Meditate: A Comprehensive Guide for Beginners and Beyond

  • कुम्भःपरिमितम्भः पिबत्यसौ कुम्भसंभवोऽम्भोधिम् ।
  • अतिरिच्यते सुजन्मा कश्चित् जनकं निजेन चरितेन ॥
  • मटका अपने माप जितना ही पानी पीता है, किंतु मटके में से जन्मे हुए अगत्स्य मुनि समंदर को पी जाते है । उसी तरह पुत्र अपने चरित्र से पिता के मुकाबले सर्वथा बेहतर होता है (होना चाहिए) ।
  • वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्खशतान्यपि ।
  • एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च तारागणोऽपि च ॥
  • सौ मूर्ख पुत्रों से तो एक गुणवान पुत्र अच्छा । अकेला चंद्र अंधकार का नाश करता है, पर ताराओं के समूह से अंधकार का नाश नहीं होता ।
  • यदि पुत्रः कुपुत्रः स्यात् व्यर्थो हि धनसञ्चयः ।
  • यदि पुत्रः सुपुत्रः स्यात् व्यर्थो हि धनसञ्चयः ॥
  • यदि पुत्र कुपुत्र हो तो धनसंचय व्यर्थ है; और यदि पुत्र सुपुत्र हो, तो भी धनसंचय व्यर्थ है ।
  • अविनीतः सुतो जातः कथं न दहनात्मकः ।
  • विनीतस्तु सुतो जातः कथं न पुरुषोत्तमः ॥
  • जैसे घेटे (अवि) पर बैठा हुआ (नीत) अग्नि है, वैसे अविनीत पुत्र को भी दाहक क्यों न कहना ? वैसे हि वि (गरुड) पर बैठा हुआ जैसे (नीत) पुरुषोत्तम है, तो विनीत पुत्र को पुरुषों में उत्तम क्यों न कहना ?
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