बुद्धिमान पर संस्कृत श्लोक हिंदी में
- शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणां तथा ।
- ऊहापोहोऽर्थ विज्ञानं तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः ॥
- शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, चिंतन, उहापोह, अर्थविज्ञान, और तत्त्वज्ञान – ये बुद्धि के गुण हैं ।
- देशाटनं पण्डित मित्रता च
- वाराङ्गना राजसभा प्रवेशः ।
- अनेकशास्त्रार्थ विलोकनं च
- चातुर्य मूलानि भवन्ति पञ्च ॥
- देशाटन, बुद्धिमान से मैत्री, वारांगना, राजसभा में प्रवेश, और शास्त्रों का परिशीलन – ये पाँच चतुराई के मूल है ।
- स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते दन्ताः केसा नखा नराः ।
- इति सञ्चिन्त्य मतिमान् स्वस्थानं न परित्यजेत् ॥
- दांत, बाल, नाखून, और नर – ये यदि स्थानभ्रष्ट हो तो शोभा नहीं देते; ऐसा समजकर, मतिमान इन्सान ने स्वस्थान का त्याग नहीं करना चाहिए ।
बुद्धिमान पर संस्कृत श्लोक हिंदी में
- यस्तु सञ्चरते देशान् यस्तु सेवेत पण्डितान् ।
- तस्य विस्तारिता बुद्धिः तैल बिन्दु रिवाम्भसि ॥
- जो देशों में घूमता है, जो पंडितों की सेवा करता है, उसकी बुद्धि पानी में तेल के बिंदुवत् विस्तृत होती है ।
- यो न सञ्चरते देशान् यो न सेवेत पण्डितान् ।
- तस्य सङ्कुचिता बुद्धि र्धुतबिन्दु रिवाम्भसि ॥
- जो देशों में घूमता नहीं, जो पंडितों की सेवा करता नहीं, उसकी बुद्धि पानी में घी के बिंदुवत् संकुचित रहती है ।
- परोपदेश पाण्डित्ये शिष्टाः सर्वे भवन्ति वै ।
- विस्मरन्ती ह शिष्टत्वं स्वकार्ये समुपस्थिते ॥
- दूसरे को उपदेश देते वक्त सब शयाने बन जाते हैं; पर स्वयं कार्य करने की बारी आती है, तब पाण्डित्य भूल जाते हैं ।
- परोपदेशे पाण्डित्यं सर्वेषां सुकरं नृणाम् ।
- धर्मे स्वीयमनुष्ठानं कस्यचित्तु महात्मनः ॥
- दूसरों को उपदेश देने में पांडित्य बताना इन्सान के लिए आसान है; पर उसके मुताबिक खुद का आचरण तो किसी महात्मा का हि होता है ।
- सत्यं तपो ज्ञानमहिंसता च
- विद्वत्प्रणामं च सुशीलता च ।
- एतानि यो धारयति स विद्वान्
- न केवलं यः पठते स विद्वान् ॥
- सत्य, तप, ज्ञान, अहिंसा, विद्वानों को प्रणाम, (और) सुशीलता – इन गुणों को जो धारण करता है, वह विद्वान और नहीं कि जो केवल अभ्यास करता है वह ।
- निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते ।
- अनास्तिकः श्रद्धानः एतत् पण्डितलक्षणम् ॥
- सत्पुरुषों की सेवा, निंदितों का त्याग, अनास्तिक होना, (और) श्रद्धावान होना – ये पंडित के लक्षण हैं ।
- रत्नैर्महार्हैस्तुतुषुर्न देवाः
- न भेजिरे भीमविषेण भीतिं ।
- सुधां विना न प्रययुर्विरामम्
- न निश्चितार्थाद्विरमन्ति धीराः ॥
- अति मूल्यवान रत्नों के ढेर मिलने पर देव संतुष्ट न हुए, या भयंकर विष निकलने पर वे डरे नहीं; अमृत न मिलने तक वे रुके नहीं (डँटे रहे) । उसी तरह, धीर इन्सान निश्चित किये कामों में से पीछे नहीं हटते ।
क्षान्ति तुल्यं तपो नास्ति Top Sanskrit shlok ever