- कुले कलङ्कः कवले कदन्नता
- सुतः कुबुद्धिः र्भवने दरिद्रता ।
- रुजः शरीरे कलहप्रिया प्रिया
- गृहागमे दुर्गतयः षडेते ॥
- घर में आने पर कलंकित कुल, कुअन्न का भोजन, दुर्बुद्धि पुत्र, दारिद्र्य, शरीर में रोग, और कलहप्रिय पत्नी – ये छे दुर्गति का अहेसास कराते हैं
- अत्यासन्ने चातिदूरे अत्याढ्ये धनवर्जिते ।
- वृत्ति हीने च मूर्खे च कन्यादानं न शस्यते ॥
- अत्यंत नज़दीक हो, अत्यंत दूर हो, अति धनवान या अति गरीब हो, उपजीविका का साधन न हो, और मूर्ख हो – इन्हें कन्या नहीं देनी चाहिए ।
- कार्येषु मन्त्री करणेषु दासी
- भोज्येषु माता शयनेषु रम्भा ।
- धर्मानुकूला क्षमया धरित्री
- भार्या च षाड्गुण्यवतीह दुर्लभा ॥
- कार्य प्रसंग में मंत्री, गृहकार्य में दासी, भोजन कराते वक्त माता, रति प्रसंग में रंभा, धर्म में सानुकुल, और क्षमा करने में धरित्री; इन छे गुणों से युक्त पत्नी मिलना दुर्लभ है ।
- लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता ।
- पञ्च यत्र न वर्तन्ते न कुर्यात् तत्र संस्थितिः ॥
- जहाँ लोगों का आना-जाना न हो, दुष्कर्म करने का डर न हो, लज्जा, चतुराई, और औदार्य न दिखते हो वहाँ निवास नहीं करना चाहिए ।
- अतिथि बालकः पत्नी जननी जनकस्तथा ।
- पञ्चैते गृहिणीः पोष्या इतरे च स्वशक्तितः ॥
- अतिथि, बालक, पत्नी, माता, और पिता-गृहस्थी ने इन पाँचों का अवश्य हि पोषण करना चाहिए ।
- मूढाय च विरक्ताय आत्मसंभाविताय च ।
- आतुराय प्रमत्ताय कन्यादानं न कारयेत् ॥
- मूढ, विरक्त, स्वयं को बडा समज़नेवाला, रोगी, और अविनयी, इनको कन्या नहीं देनी चाहिए ।
- अक्रोधो गुरुशुश्रूषा शौचमाहारलाघवम् ।
- नित्य स्वाध्याय इत्येते नियमाः पञ्च कीर्तिताः ॥
- अक्रोध, गुरुशुश्रूषा, शौच, मिताहार, और नित्य स्वाध्याय – ये पाँच नियम कीर्तिकर बनाते हैं ।
- अनुकूलां विमलाङ्गीं कुलीनां कुशलां सुशीला सम्पन्नाम् ।
- पञ्चलकारां भार्यां पुरुषः पुण्योदयात् लभते ॥
- अनुकूल, निर्मल, कुलीन, कुशल, और सुशील – ऐसे पाँच ‘ल’ कार वाली पत्नी, पुरुष के पुण्योदय होने पर हि मिलती है ।
- जनिता चोपनेता च यश्च विद्यां प्रयच्छति ।
- अन्नदाता भयत्राता पञ्चैते पितरः स्मृताः ॥
- जन्मदाता, पालक, विद्यादाता, अन्नदाता, और भयत्राता – ये पाँचों को पिता समझना चाहिए ।
- राजपत्नी गुरोः पत्नी भ्रातृपत्नी तथैव च ।
- पत्नीमाता स्वमाता च पञ्चैते मातरः स्मृतः ॥
- राजपत्नी, गुरुपत्नी, भाभी, सास, और जन्मदात्री माँ ये पाँच माताएँ हैं ।
- प्रीणाति य सुचरितैः पितरं स पुत्रो
- यद्भर्तुरेव हितमिच्छति तत्कलत्रम् ।
- तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं यत्
- एतत् त्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते ॥
- पिता को अपने सद्वर्तन से खुश करनेवाला पुत्र, केवल पति का हित चाहनेवाली पत्नी, और जो सुख-दुःख में समान आचरण रखता हो ऐसा मित्र – ये तीन जगत में पुण्यवान को हि प्राप्त होते हैं ।
- ऋणकर्ता पिता शत्रुः माता च व्यभिचारिणी ।
- भार्या रूपवती शत्रुः पुत्रः शत्रुरपण्डितः ॥
- कर्जा करनेवाला पिता, व्यभिचारिणी माता, रुपवती स्त्री, और अनपढ पुत्र – शत्रुवत् हैं ।
- दिग्वाससं गतव्रीडं जटिलं धूलिधूसरम् ।
- पुण्याधिका हि पश्यन्ति गंगाधरमिवात्मजम् ॥
- गंगा को धारण करनेवाले महादेव की भाँति दिगंबर, निर्लज्ज, जटावाले, और धूल से मैले बालक को तो कोई विशेष पुण्यशाली जीव हि देख सकता है ! (अर्थात् ऐसा बच्चा किसे अच्छा लगेगा ?)
- कोऽर्थः पुत्रेण जातेन यो न विद्वान न धार्मिकः ।
- काणेन चक्षुषा किं वा चक्षुःपीडैव केवलम् ॥
- जो विद्वान और धार्मिक नहीं ऐसा पुत्र जनने से क्या लाभ ? एक आँख का क्या उपयोग ? वह तो केवल पीडा ही देती है !
Sanskrit slokas about grihastha:
- पात्रं न तापयति नैव मलं प्रसूते
- स्नेहं न संहरति नैव गुणान् क्षिणोति ।
- द्रव्यावसानसमये चलतां न धत्ते
- सत्पुत्र एष कुलसद्मनि कोऽपि दीपः ॥
- कुलवान के घर में प्रकट हुआ पुत्र तो एक विलक्षण दिये जैसा है । दिया तो पात्र को तपाता है, पर पुत्र कुल को नहीं तपाता; दिया मेश बनाता है पर पुत्र मैल नहीं निकालता; दिया तेल पी जाता है पर पुत्र स्नेह का नाश नहीं करता; दिया गुण (वाट) को कम करता है पर पुत्र गुण कम नहीं करता; दिया सामग्री कम होने पर बूझ जाता है पर पुत्र द्रव्य कम होने पर कुल का त्याग नहीं करता ।
- विद्याविहीना बहवोऽपि पुत्राः
- कल्पायुषः सन्तु पितुः किमेतैः ।
- क्षयिष्णुना वापि कलावता वा
- तस्य प्रमोदः शशिनेव सिन्धोः ॥
- चंद्र क्षयरोग से पीडित है, फिर भी कलावान होने से समंदर को आनंद होता है । वैसे हि एखाद भी गुणवान पुत्र से पिता को आनंद होता है, परंतु, विद्याविहीन अनेक दीर्घायु पुत्र होने से पिता को क्या ?
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- कुम्भःपरिमितम्भः पिबत्यसौ कुम्भसंभवोऽम्भोधिम् ।
- अतिरिच्यते सुजन्मा कश्चित् जनकं निजेन चरितेन ॥
- मटका अपने माप जितना ही पानी पीता है, किंतु मटके में से जन्मे हुए अगत्स्य मुनि समंदर को पी जाते है । उसी तरह पुत्र अपने चरित्र से पिता के मुकाबले सर्वथा बेहतर होता है (होना चाहिए) ।
- वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्खशतान्यपि ।
- एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च तारागणोऽपि च ॥
- सौ मूर्ख पुत्रों से तो एक गुणवान पुत्र अच्छा । अकेला चंद्र अंधकार का नाश करता है, पर ताराओं के समूह से अंधकार का नाश नहीं होता ।
- यदि पुत्रः कुपुत्रः स्यात् व्यर्थो हि धनसञ्चयः ।
- यदि पुत्रः सुपुत्रः स्यात् व्यर्थो हि धनसञ्चयः ॥
- यदि पुत्र कुपुत्र हो तो धनसंचय व्यर्थ है; और यदि पुत्र सुपुत्र हो, तो भी धनसंचय व्यर्थ है ।
- अविनीतः सुतो जातः कथं न दहनात्मकः ।
- विनीतस्तु सुतो जातः कथं न पुरुषोत्तमः ॥
- जैसे घेटे (अवि) पर बैठा हुआ (नीत) अग्नि है, वैसे अविनीत पुत्र को भी दाहक क्यों न कहना ? वैसे हि वि (गरुड) पर बैठा हुआ जैसे (नीत) पुरुषोत्तम है, तो विनीत पुत्र को पुरुषों में उत्तम क्यों न कहना ?
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भक्तामर स्तोत्र Sanskrit Shlok With Hindi
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